
हमारी पत्रिका उनके सामने धरी रह जाती थी। फिर भी कुछ तो कहना ही था - ’’मौलाना, आप इतना तो मानते ही हैं ना कि विश्व मंदी में भी भारत की अर्थव्यवस्था ठीक रही है। क्या यह सरकार की उपलब्धि नहीं है ?’’
मौलाना जैसे तैयार बैठे थे - ’’बेशक, यह सरकार का प्लस पॉइंट है परंतु पंडत, पहले पटरी पकड़ो। मंदी के दौर में अर्थव्यवस्था जरूर ठीक रही है पर मंहगाई तो बढ़ी और बढ़ती ही रही है। और बढ़ते-बढ़ते अब जान पर आफत बन गई है। इससे तुम्हें इनकार है क्या ?सरकार किसी भी पार्टी की रही हो..........मुखिया उसका चाहे जो रहा हो..........पिछले दो दशकों से मंहगाई की मार निरंतर पड़ रही है या नहीं ?मंदी ने मिटाया मुनाफाखोर उद्योगपतियों को। मंहगाई उससे भी नहीं मिटी।’’
एकाएक हमें सूत्र मिला - ’’मौलाना, बेतहाशा मंहगाई बढ़ने का सारा दोष सरकार पर ड़ालना न्यायोचित नहीं है। इसमें देसी उद्योगपतियों और व्यापारी वर्ग का भी बड़ा हाथ है। फर्जी अभाव दर्शा कर वो चीजों के भाव बढ़ा देते हैं। गोदाम भरकर फिर निकालते नहीं हैं। थोक और खेरची व्यापारी मनमाने दाम लगाते हैं। बिल ना कोई देता है, ना कोई लेता है। इसीलिये लूट का बाजार गर्म है। ऊपर दो रूपयेे बढ़तें हैं, नीचे वाले दस रूपये बढ़ा देते हैं। बेचने वाले बेच रहें हैं और हम जैसे खरीदने वाले खरीद रहें हैं। विरोध कहीं नहीं हैं फिर मंहगाई का रोना कैसा ?क्रेता-विक्रेता के इस विनिमय में सरकार भला क्या करे ?’’
हमारी समझ में हम नई कौड़ी ले आए थे। दांव की तरह उसे आगे करते हुए हमने मौलाना को शह देने की कोशिश की, परंतु मौलाना हर कदम पर चौकन्ने थे। मात कैसे मानते ?’तुम गुगली ड़ालो या स्पिन कराओ, मैदान हमारे ही हाथ रहेगा। तुम्हारी इस बात से कतई इनकार नहीं कि निजी एजेंसियों, मिलों और उद्योगों के साथ थोक और खेरची व्यापारियों का बड़ा हाथ है मंहगाई बढ़ाने में। अधिक से अधिक मुनाफा कमाकर जल्दी पेटी और खोखे बनाने वालों ने मध्यम वर्ग और मजदूर वर्ग की कमर तोड़ दी है। दाम बढ़ाने की बात तो हर दुकानदार करता है किन्तु गुणवत्ता की गारंटी कोई नहीं देता।
इन सबकी निगरानी करने वाला खाद्य विभाग हर घड़ी सोया रहता था। सब खबर होने के बावजूद विभाग अनजान बनने का ड्रामा करता है। फलतः जिसे मौका मिलता है, वह चूकता नहीं है। नाप तौल विभाग नाकारा है इसलिये नेट वेट का चलन ही बंद हो गया। हर जगह ड़िब्बे के तौल सहित सामग्री मिलती है। 100 लीटर मीठे तेल पर यदि 100 रूपये बढ़ते हैं तो उससे बनने वाली सामग्री पर किलो के हिसाब से कई गुना दो-चार रूप्ये प्रति नग पर बढ़ जाते हैं।
प्रशासन पंगु और लाचार है। हर अधिकारी शिकायत की प्रतीक्षा में है। जैसे शिकायत मिलते ही समस्या का हल कर देगा। थानेदार सामने कत्ल होने पर भी रिपोर्ट लिखाने वाले का इंतजार करता है। ऐसा हो गया है हमारा इंतजाम, सिस्टम।’’
विषय विस्तार को टालने की दुष्टि से हमने उन्हें टोका - ’’माननीय मौलाना साहब, आप बिलकुल बजां फरमाते हैं। थोड़े में कहें तो पूरे टब में भांग घुली है। उसमें से लोटा भर भांगरहित जल कैसे निकाल सकते हैं ?सिस्टम की सड़ांध भी एक ऐसी ही समस्या है। इच्छाशक्ति के अभाव में सरकार जिस पर काबू करने में विफल रही है।’’
’’आज तुम्हें ऑफिस जाने की जल्दी नहीं लगती। हमें क्या ?हम भी बैठे हैं आराम से। परंतु किचन में कोई हलचल क्यों नहीं है ?सब खैरियत तो है ना ?हमारा मतलब भाभीजी तो.........................।’’ उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया जिसे पूरा हमें करना था।
’’यू ंतो सब ठीक है मौलाना, पर मंहगाई की मार से शकुनजी भला कैसे अप्रभावित रह सकती है। बेचारी चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाने से पहले कई बार सोचती है। अन्नपूर्णा होने का दावा खुद उन्हें झूठ लगने लगता है। धर में जो आता है, वह टिकता नहीं है। अभी इसी सप्ताह तेल और शक्कर लाये थे।
कल से ड़िब्बों के तले दिख रहे है इसलिये बैठी है बेचारी। यदि आपको फीकी चले तो उनसे चाय का कहें।’’ हमने मौलाना का जायजा लिया। व ेअब तक कई बार करवट बदल चुके थे। यकायक उठे और बिना दुआ-सलाम के ये जा, वो जा। दरवाजे पर जरूर बुदबुदाये - ’’क्या हम होटल समझकर यहां आते हैं ?वैसे भी आज चाय-नाश्ते का मन नहीं था। हमारी तो हंसी निकली ही सही। शकुनजी की खिलखिलाहट ने भी खुश कर दिया।
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