http://4.bp.blogspot.com/-5q2Nk3tjs9Q/VKmAzEK3cyI/AAAAAAAAD_U/L2HsJAmqhFg/s1600/eyetechnews%2BHeaderpngnew1.png

‘‘बलिदान से मेवाड़ की धरती आज भी दैदीप्यमान’’

कुँवर राजेन्द्र सिंह शेखावत, चित्तौड़गढ़
’’अपने सतीत्व की रक्षा के लिये जौहर में अपने चंदन तन को होम करने वाली विरांगनाओं को, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं दर्ज नहीं है, जिनके अतुलनीय बलिदान से मेवाड़ की धरती आज भी दैदीप्यमान है। जिस कारण मेवाड़ का गौरव अखण्ड़ित है। उन नव यौवनाओं, जिनका समर्पण अविस्मरणीय है, जो पूजनीय है, प्रातः स्मरणीय है, को बारम्बार प्रणाम।’’
चैत्र माह की उष्ण मगर मद्धम-मद्धम बहती पवन, जिसमें फाल्गुनी बयार की छुअन अभी भी बाकी है। जिस तरफ नजर उठा के देखे, सूरज की चटख धूप। वृक्ष इस समय हरियाली विहीन होकर ठुंठ से खड़े हैं। इस अनोखे मौसम में मानव मन क्यों ना उद्वेलित हो ?ऐसी ही भरी दोपहरी में किसी की बाट जोहना,
किसी के लिये भी सदियों के बित जाने का सा प्रतीत होता है।
मैं बात करता हूं, बाट जोहती उस प्रेयसी की, जिसका प्रियतम आने वाला है। और आखिर वो प्रियतम है कौन ? यह वही प्रियतम है, जो याचक है उन काले बादलों का जो बरसकर तप्त धरती को राहत देते हैं। वो सेवक है उस मातृभूमि का, जिसका सीना चीरकर वो खेती करता है, यानि कि किसान।
लेकिन जब एकलिंग का दीवान हुंकार भरता है तो वही परिश्रमी किसान अपने हाथों के हल को छोड़कर खड़्ग धारण कर लेता है और दीवान के साथ कांधे से कांधा मिलाकर रणभूमि की ओर कूच कर जाता है, अपनी प्रेयसी से लोट कर आने का वादा करके। जिसकी बाट जोहते-जोहते प्रेयसी की आंखें पथरा जाती हैं क्योंकि उसके इंतजार का कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं। तब -
’’प्रियतम मत परदेस सिधारो, रूत फागुण की सांवरिया रे.........
नदी किनारे धूआं उठे, मैं जानूं कुछ होय, जिस कारण मैं जोगन बनी, कहीं वही न जलता होय...........’’  - आबिदा परवीन, पाकिस्तान (शायर)
लेकिन यह क्या ?उसका इंतजार अधूरा ही रहा। वस्तुतः खबर मिलती है कि उसके प्रियतम ने सूर्ख लहू से रणचंड़ी का प्याला भर दिया और रणखेत रहा। बाट जोहती प्रेयसी अपनी सूध-बूध खोकर जड़ हो जाती है। प्राण विहीन

 नभ को तकती प्रेयसी को जब यह पता चलता है कि बैरी तो जिसकी चाह है मेदपाट की धरती, जिस पर अधिकार करके वह अपनी साम्राज्य विस्तार की लालसा को मिटा सके, आगे बढ़ा चला आ रहा है।
उस बैरी की लालसा जिसमें वो इस तपोभूमि की हर जीवित-अजीवित ’वस्तु’ का भोग कर सके, अपनी पिशाचात्मा को शान्त कर सके। उस बैरी की सोच का कोई आदि और अंत नहीं। ना ही कोई ओर है और ना ही कोई छोर है। ऐसी ही विषम परिस्थितियों में प्रेयसी की सोच कि ’अब क्या होगा ?’ निःशब्द भाव से शून्य को निहारती प्रेयसी, आंखों से बहते अविरल अश्रु की धारा, जिसकी कामना मात्र से ही उसका प्रियतम विचलित हो उठता था। इन्हीं अश्रुओं को उसका प्रियतम ’सच्चे मोतियों’ की संज्ञा देता था। जिसकी कल्पना मात्र से ही प्रियतम के मन में एक हूक सी अठती थी। उन्हीं अश्रु की धारा को अब ’संबल प्रदान’ करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में दूर मैदान में उड़ता धूल का बवंड़र जो संकेत देता है कि बैरी नजदीक आ रहा है। नजदीक से भी और नजदीक। वो इस पवित्र तपोभूमि को रोंदने के साथ-साथ उसका भी मान-मर्दन कर सकता है क्योंकि उसके लिये यह सभी उपभोग की वस्तु मात्र है।
हर तरफ असमंजस की स्थिति, निर्णय करना अत्यंत कठिन। मगर निर्णय लेना नितांत आवश्यक होगा। निर्णय भी ऐसा जिसमें सब कुछ खोकर बहुत कुछ पाना है। सर्वस्व समर्पण कर पूर्णता को प्राप्त करना है। 
इस झांझावत में उलझा प्रेयसी का मन-मस्तिष्क, कि आखिर निर्णय क्या होगा ?क्या करेगा वो बैरी ?समर्पण चाहेगा। धरती-पुत्रों के पवित्र लहू से सने उस विधर्मी के हाथ अब उसकी ओर बढ़ेंगे। मान-मर्दन होगा, सीमाएं तोड़ी जाएंगी। वो मन, जिसमें छवि है उस प्रियतम की, जो उसे देखकर निहाल हो जाता था। वो चंदन तन, जिसकों अंगीकार करने मात्र से ही सभी वर्जनाएं टूट जाती थीं। वो समृद्ध बाहुपोश, जिसमें समाकर वो अपने आप को संपूर्ण पाती थी। प्राण विहीन, मुर्तिवत प्रेयसी की अब तो सोच भी थम सी जाती है। एक पल में निर्णय करना है लेकिन इस उलझन भरी घड़ी से पार पाना ही होगा। निर्णय, अंतिम निर्णय।
मस्तिष्क निर्णय लेता है, चपल बिजली सी कोंधती है मन में। कुछ भी हाथ नहीं लगेगा बैरी के। सब कुछ समाप्त, सभी का अंत। रास्ता एक ही है, सर्वस्व ’होम’ होगा, तन और मन का होम। कुछ भी नहीं सूझा क्योंकि अब समय आ पहुंचा है चिता के श्रृंगार करने का। महाकाल की आरती का, जिसमें चंदन तन की भस्मी तैयार होगी, स्वयं महाकाल साक्षी होंगे।
प्रेयसी स्वयं भी श्रृंगार करती है, नख से शिख तक सोलह श्रृंगार, लाल सूर्ख पोशाक और हाथ में कलश लिये। ऐसा लगता है जैसे विदाई की बेला हो। ऐसा श्रृंगार आज दूसरी बार किया था उसने। पहले अपने नेहर से प्रियतम के आंगन तक आने का सफर। आज भी श्रृंगारित प्रेयसी उद्धृत है, अपने प्रियतम से मिलने के लिये। अप्रतीम सौंदर्य की मुर्ति चली है अपने प्रियतम से मिलने के लिये। मिलन पहले भी हुआ, भौतिक संपदाओं के बीच, तन से तन का और मन से मन का मिलन। आज मिलन है, अग्नि से तप कर निर्मल हुए मन का मन से। मृत्यु से अमरता की ओर, शून्य से पूर्णता की ओर और उसके साक्ष्य होंगे ये सूरज, ये धरती, ये आकाश, ये हवाएं, ये पक्षी जो विद्यमान हैं इस जमीं पर।
अन्ततः चिता श्रृंगार करती है। चिता से उठती लपटें, दहकते अंगारे जो मात्र स्थान है प्रेयसी का, जिसको अपने मान की रक्षा करनी है, अपना सब कुछ अग्नि को समर्पित करके। और आखिर होता भी यही है, प्रेयसी अपने चंदन तन की आहुति देती है पवित्र अग्नि में। अपना सब कुछ होम करके पूर्णता की प्राप्ति करती है। तन खाक होता है और मन निर्मल। निर्मल मन समाता है अपने प्रियतम के मन में। पूर्णता से सम्पूर्णता की ओर बढ़ती प्रेयसी, जिसके स्मरण मात्र से ही पूर्णता की प्राप्ति होती है। हवाएं रूक सी जाती है, समय ठहर सा जाता है, सूरज अपनी गति बदल देता है उस तप का सानिध्य पाने के लिये। तन चंदन राख हुआ, बैरी हाथ मलता रहा। सब कुछ पा कर भी खाली हाथ रहा।
एैसी विरांगनाओं को शत्-शत् प्रणाम। बारम्बार नमन। श्रद्धांजलि।
जय मेवाड़ - जय जौहर - जय एकलिंग
Share on Google Plus

About amritwani.com

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment