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जो राखे धर्म को, तिहिं राखे करतार

बहादुर सिंह सोनगरा, ठि. नामली
चित्तौड़गढ़ के राणा उदयसिंह का मालवा के सुल्तान को शरण देने के कारण दिल्ली का बादशाह अकबर अप्रसन्न हो गया था और उसने कहा कि ’’ राणा को इसकी सजा दी जाये।’’ अगस्त 1567 में एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई कर दी।
इधर राणा उदयसिंह के छोटे बेटे शक्तिसिंह अपने बड़े भाई प्रतापसिंह से नाराज हो कर राज्य छोड़ कर धौलपुर में रहने लग गये। अकबर की सेना ने जब धौलपुर में पड़ाव ड़ाला तो शक्तिसिंह अकबर से मिले और शाही सेना में काम करने की इच्छा जताई। इस बात पर अकबर बहुत खुश हुए औा शक्तिसिंह को अपने साथ रख लिया।

शाही सेना पड़ाव दर पड़ाव करती हुई चित्तौड़गढ़ की तरफ बढ़ रही थी। इसी एक पड़ाव में अकबर ने कुं. शक्तिसिंह से पूछा कि अगर मैं चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई करूँ तो तुम मेरा साथ दोगे ?अकबर की इस बात से आहत होकर उसी दिन रात को शक्तिसिंह चित्तौड़ आ गये और अपने पिता उदयसिंह को सब बातें बता दीं।
राणा उदयसिंह ने अपने सभी सामन्तों व सेनापतियों को बुला कर मंत्रणा की और तय हुआ कि राणा अपने पुत्रों तथा रनिवास को लेकर कुछ विश्वस्त लोगों के साथ दुर्गम पर्वतों और जंगलों में चलें जाएं एवं बाकी सभी प्रमुख सामन्त चित्तौड़गढ़ की रक्षा के लिये यहीं बने रहकर शाही सेना को रोकें।
सर्वसम्मति से जयमल मेड़तिया को मुख्य सामंत बनाया गया तथा अन्य सामंत जिनमें रावल साईंदास, साइस्ता खान, चौहान, ईसरदास राठौड़, बल्लू सोलंकी, संग्राम सिंह चौहान व ईस्माइल खां पठान मुख्य सामंत की सहायता के लिये तैयार हो गये। किले में कुल 80,000 राजपूत सैनिक तथा 1000 पठान सैनिक थे।
अकबर पूरे लाव लश्कर के साथ चित्तौड़गढ़ के लिये रवाना हो गया। रास्ते में जो भी किले पड़ते गये, उन पर अधिकार करता गया क्योंकि सभी किलेदार व सामंत चित्तौड़गढ़ में थे इसलिये अकबर को किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। आखिर में मांड़लगढ़ पर अधिकार के बाद अकबर 3 लाख सैनिक, तोपखाना व प्रशिक्षित हाथियों के साथ वह चित्तौड़गढ़ के पास नगरी गांव में रूक गया और रणनीति बनानी शुरू कर दी। दूरी होने के कारण उसे किला ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था इसलिये वह पास ही किले की तलहटी में यक गया। उसने हुसैन कुली खां को कुंभलगढ़ पर अधिकार करने के लिये भेजा लेकिन वहां पर सामंत राव नेताजी के मौजूद होने के कारण कुली खां को हार का सामना करना पड़ा और अपनी जान बचाकर अकबर के पास भाग आया। इधर सामंत जयमल मेड़तिया ने किले की सुरक्षा के लिये सुदृढ़ व्यवस्था कर रखी थी। किले के हर दरवाजे पर सामंत अपने-अपने सैनिकों के साथ अकबर से मिलने के लिये तैयार खड़े थे। अकबर ने सामंतों को बरगलाने, लालच तथा अन्य प्रलोभन देकर अपनी तरफ करने की पूरी कोशिश की लेकिन राजपूत सेना टस से मस नहीं हुई।
तत्पश्चात् अकबर ने अपनी रणनीति के तहत अपनी सेना के तीन भाग कर दिये जिसमें प्रथम भाग में लाखोटा बारी की तरफ स्वयं अकबर व उसके सेनापति हसन खां चंगताई, राव पतरदास, काजी अली बगदादी आदि सैनिकों के साथ थे। सेना के द्वितीय भाग में पूर्व दिशा स्थित सूरज पोल दरवाजे की तरफ सुजात खां, कासिम खां, मीरमर ओबर तथा टोडरमल अन्य सैनिकों के साथ ड़टे हुए थे। जबकि सेना के तीसरे भाग में चित्तौड़गढ़ बुर्ज दक्षिणी दरवाजे की तरफ ख्वाजा अब्दुल मजीद, आसफ खां, वजीर खां सैनिकों के साथ थे।
इसके साथ ही उसने साबत बनाने की शुरूआत कर दी। साबत एक ढं़का हुआ लम्बा रास्ता होता है जिसके अंदर सैनिक कहीं भी दुश्मन की मार से बच सकते हैं और उसी की आड़ में सुरंग भी खोद सकते हैं। इसका भी अकबर ने पुख्ता इंतजाम किया। इस तैयारी के साथ अकबर ने किले पर आक्रमण कर दिया और साथ ही तोपखाने से गोले दागने लगा लेकिन राजपूत वीर तैयार थे। उन्होंने इसका जोरदार प्रतिकार किया और अकबर के सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काट-काट कर बिछा दिया। बार-बार अकबर को पीछे हटना पड़ रहा था और वह फिर से जोरदार आक्रमण करने लगा। तोपों से दीवारों में दरार पड़ने लगी लेकिन राजपूत सैनिक रात के समय उसे पुनः ठीक करके मोर्चो पर डट जाते। इधर अकबर के पास किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी लेकिन केम्प के अंदर तो हर वस्तु एक सीमित मात्रा में ही रखी जा सकती थी। यह देख कर सामंतों नेे आपसी विचार-विमर्श कर राव साहिब खां तथा

ठाकुर सांगा डोडिया को अकबर के पास संधि का प्रस्ताव लेकर भेजा लेकिन सत्ता के लोभी अकबर ने यह कहकर संधि प्रस्ताव ठुकरा दिया कि राणा उदयसिंह के साथ आने पर ही संधि की बात होगी। इतना ही नहीं अकबर ने संधि के लिये आए दोनों सामंतों को भी अपनी ओर से प्रलोभन भी दिया लेकिन मातृभूमि के रखवाले अकबर के प्रलोभन को ठुकरा कर किले में वापस आ गये। अब सामंतों के सामने अंतिम लड़ाई के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचा था इसलिये यह तय हुआ कि किले में जौहर होने के बाद ही अकबर से भिड़ा जाये। राव पत्ता की हवेली में जौहर हुआ जिसमें उनके परिवार एवं अन्य राजपूत महिलाओं ने अग्नि में प्रवेश किया। इस जौहर की अग्नि स्वयं राव ने ही प्रज्वलित की। इसी तरह ईसरदास राठौड़, राव साहब खां चौहान और महासतियों के चबूतरे पर जौहर हुआ। स्वयं सामंतों ने अग्नि प्रज्वलित करके महिलाओं और बच्चों को जौहर कराया। जौहर से निपटने के बाद राजपूत वीरों ने स्नान कर देव दर्शन किया तथा केसरिया साफे में तुलसीदल रखकर और सालिग्राम की पीड़ी अपने गले पहनकर शत्रु को समाप्त करने के लिये अपने-अपने मोर्चे पर ड़ट गये। प्रमुख सामंत जयमल पैरों में गोली लगने के कारण चलने में असमर्थ थे, एक सेवक ने उन्हें अपने कंधे पर बिठाया और उनके तथा अपने दोनों हाथों में तलवारें लेकर चतुर्भुज रूप धारण कर शत्रु सेना का विनाश करने लगे। उन्होंने अपनी तरफ का दरवाजा खोला और 1000 वीरों के साथ अकबर की सेना में घुस गये। भारी मारकाट मच गई। भैरों पोल और हनुमान पोल के बीच घमासान में सामंत जयमल व उनका सेवक कल्ला वीरगति को प्राप्त हुए। यहीं पर आज भी उनके नाम की छतरियां बनी हुई हैं। रणचंड़ी के पुजारी राजपूतों की मार से भाड़े के शाही सैनिक बिखरने लगे तो उनहोंने अपने खूनी हाथियों को राजपूत वीरों के बीच कर दिया। पहले से सिखाये इन हाथियों ने राजपूतों को अपनी सूंड़ों से मारना और पैरों से रौंदना शुरू कर दिया। इसके बावजूद राजपूतों ने हाथियों को मार-मार कर धराशायी कर दिया। अकबर बौखला कर किले पर तोपखाने और सैनिकों से आक्रमण करता रहा मगर वीरों ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया। लगातार लड़ाई के कारण किले का राशन-पानी समाप्त हो गया, केवल पीने के लिये पानी ही बचा था, फिर भी वीरों ने समर्पण नहीं किया और अकबर की सेना को काटते रहे। मुट्ठी भर राजपूत सैनिक (40,000 सैनिक) अकबर की भारी सेना (3 लाख सैनिक) के सामने कब तक टिकते। अकबर ने सभी को कटवा दिया, साथ ही किले में रहने वाली प्रजा को भी नहीं बख्शा। किले के पठान सैनिक मुसलमान होने का फायदा उठाते हुए अपने बचे सभी साथियों, औरतों व बच्चों को किले से निकालकर अन्य स्थानों पर चले गये। अकबर की क्रूरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि किले के अंदर कत्लेआम में मारे गये पुरूषों के जनेऊ का वनज 74 मन था। ऐसी किवदन्ती आज भी कही जाती है। 25 फरवरी 1568 को अकबर को किले पर पूरी तरह से अधिकार मिल गया। उसने आसफ खां को वहां का किलेदार नियुक्त कर दिया और स्वयं अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर माथा टेकने के बाद आगरा लौट गया। अकबर स्वये राजपूतों के रण-कौशल व वीरता का इतना कायल हो गया कि उसने जयमल राठौड़ और पत्ता चुंड़ावत की संगमरमर की गजारूढ़ मुर्तियां बनवा करके आगरा के किले में लगवाई। वर्तमान में ये मुर्तियां राष्ट्रीय संग्रहालय में हैं। ऐसे थे राजपूत वीर, जिनका गुणगान स्वयं शत्रु भी करता है।
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