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इन्तजार है डाली को कृष्ण का! प्रशासन की नजर से दूर खेत में बिखरी पुरा सम्पदा


चित्तौड़गढ़। राजस्थान का गौरव चित्तौड़ अपने इतिहास के स्वर्णिम पन्नों के कारण आज भी सभी के लिये प्रेरणा स्त्रोत बना हुआ है जिसे देखने देश-विदेश से पर्यटक भारी संख्या में आते है। इस “ाहर का गौरवमयी इतिहास आज भी इसके कण-कण में छिपा हुआ है जो पुरा सम्पदा के रूप में समय-समय पर सामने आता रहा है। कहावत है ‘‘गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढै़या‘‘। इस कहावत के पीछे इस शहर का इतिहास ही है जो कि हमें याद दिलाता है उन लोगों की, जिन्होंने अपने प्राण दे दिये पर अपनी आन पर तनिक भी आंच नहीं आने दी। इस शहर के इतिहास में अनेक ऐसे नाम हैं जो सभी के मानस पटल पर अंकित हैं जैसे महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, राणा रतनसिंह, रानी पद्मिनी, मीरा बाई आदि।
इन्हीं इतिहास की यादों को समय-समय पर ताजा कर देती हैं पुरा सम्पदा जो कि विभिन्न स्थलों से खुदाई इत्यादि से प्राप्त होती हैं। चित्तौड़गढ़ शहर में भी इन दिनों एक खेत से मिल रही असंख्य बेशकीमती पुरा सम्पदा चर्चा का विषय बनी हुई है।
शहर के दुर्ग की तलहटी में स्थित एक खेत में बेशकीमती मुर्तियां खंड़ित अवस्था में बिखरी पड़ी हैं। पुरातत्व विभाग यदि इस और ध्यान दे तो कई तथ्य सामने आ सकते हैं। हजारेश्वर महादेव पावटा गेट की बावड़ियों में प्राचीन मुर्तियां बिखरी हुई हैं। इनमें अधिकांश खंड़ित अवस्था में मौजूद हैं। खेत मालिक देवकिशन माली के अनुसार जगेरी बावड़ी स्थित इस खेत में भगवान कृष्ण की एक मनोहारी प्राचीन प्रतिमा भी मिली जो खेत पर ही स्थित मंदिर में प्रतिष्ठित की गई है तथा प्रतिदिन सेवा पूजा के साथ यहां पिछले 5 वर्षों से अखण्ड़ धूनी भी चल रही है।
इसे स्थान का प्रभाव कहें या भक्ति की शक्ति जिसमें कि चित्तौड़ के कण-कण में कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम भरा हुआ है या उसी मीरा की दिवानगी का असर कि खेतमालिक देवकिशन माली की पुत्री डालीबाई जो भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित होकर मीरा का रूप धारण कर चुकी है तथा कृष्ण भक्ति में डूब कर अपने विवाहित जीवन का त्याग कर चुकी है। बताया जाता है कि डालीबाई का विवाह बचपन में ही चित्तौड़ जिले के ही एक गांव उमंड निवासी मदनलाल माली के साथ कर दिया गया था लेकिन कृष्ण के प्रेम में आकंठ डूबी डालीबाई ने इस विवाह को स्वीकार नहीं किया और मीराबाई की ही तरह लोक लाज की परवाह किये बिना अपने आराध्य कृष्ण के साथ ही नाता जोड़े रखा। इस स्थिति को देखते हुए डालीबाई के परिवार वालों ने भी सभी की सहमति से इस विवाह संबंध को विच्छेद घोषित कर दिया। डालीबाई कई वर्षों से व्रत उपवास आदि कर रही है तथा एक समय ही भोजन ग्रहण करती है। शुरू से अनपढ़ रही डालीबाई अब शिक्षा ग्रहण कर रही है तथा कृष्ण भक्ति के साथ नियमित पढ़ाई भी कर रही है। डालीबाई का दावा है कि वह एक दिन अपने आराध्य श्री कृष्ण से मिलकर दिखाएगी और डालीबाई के इसी विश्वास के कारण उसके परिवार के लोग भी उसकी आस्था पर विश्वास किये हुए हैं।
मंदिर में प्रतिष्ठित कृष्ण प्रतिमा जीवंत प्रतीत होती है। इस मंदिर में आने वालों की मुरादें भी पूरी होती हैं। यही कारण है कि इस मंदिर मेंं दर्शनार्थ दूर-दूर से श्रृद्धालु आते हंै। पुरानी यादों के पन्नों को खोलते हुए खेतमालिक देवकिशन ने बताया कि चित्तौड़गढ़ तीन जौहरों का प्रत्यक्ष गवाह रहा है। महारावल रतनसिंह की पत्नी रानी पद्मिनी ने विक्रम संवत् 1360 भादवा सुदी तेरस 25 अगस्त 1303 में लगभग 16000 स्त्रियों के साथ जौहर किया था। इसके बाद विक्रम संवत् 1562 चेत्र सुदी 8 सोम 8 मार्च 1533 में महाराणा सांगा की पत्नी महारानी ने 13000 स्त्रियों के साथ जौहर किया था। तीसरा जौहर महाराणा उदयसिंह के समय जयमल पत्ता के नेतृत्व में 4 माह तक युद्ध लड़ने के बाद पराजित होने की स्थिति में सांवतों की स्त्रियों ने पत्ता की पत्नी फूलकंवर के साथ विक्रम संवत् 1624 सोमवार 13 फरवरी 1568 को किया था। यह जौहर चित्तौड़ दुर्ग में विजय स्तम्भ के समीप स्थित गौमुख कुण्ड़ के पास किया था जबकि कई ठाकुरों की स्त्रियों ने अपने-अपने घरों में भी जौहर किया था। उस समय विदेशी आक्रमणकारियों से अपनी आन की रक्षा के लिये ही राजपूत स्त्रियों के साथ अन्य स्त्रियों ने भी अपने आप को जीते जी आग की लपटों के हवाले कर दिया। जब उन आक्रमणकारियों के हाथों में कुछ नहीं आया तो उन्होंने यहां मंदिरों में तोड़-फोड़ के साथ ही भारी तबाही मचा दी जिसके परिणामस्वरूप ही खेतों में इस प्रकार प्राचीन मुर्तियां मिल रहीं हैं। गेंदमल ग्रंथ प्रकाश के प्रथम या द्वितीय भाग तथा कर्नल डॉड के लेखों में भी इन घटनाओं का उल्लेख मिलता है।
देवकिशन माली के खेत में महिसासुर मर्दिनी की अद्र्धखंड़ित प्रतिमा के साथ ही अन्य मुर्तियां व खेत पर ही स्थित कुएं में कुछ पत्थरों पर अरबी अथवा उर्दू भाषा में खुदे लेख भी मिले हैं। साथ ही एकाध पत्थर पर तीन मुर्तियों के मुंह भी खुदे हुए देखे जा सकते हैं।
यदि पुरातत्व विभाग शीघ्र ही इस और ध्यान दे तो कई अन्य ऐतिहासिक मुर्तियां मिलने के साथ ही इतिहास का कोई पहलू भी सामने आ सकता है।

(गौरव थत्तै )
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