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हिन्दू कालेज में अज्ञेय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

नई दिल्ली. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कालेज में अज्ञेय की जन्मशताब्दी के अवसर पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से 'आज केप्रश्न और अज्ञेय' विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. इस दोदिवसीय आयोजन में अनेक महविद्यालयों के अध्यापकों, शोधार्थियों और युवाविद्यार्थियों ने भागीदारी की. उदघाटन समारोह में सुविख्यात आलोचक प्रो.नामवर सिंह ने कहा कि शब्दों का वैभव अज्ञेय के पूरे कविता संसार मेंदेखा जा सकता है. कलात्मक रचाव और काव्य विन्यास के सन्दर्भ में वेमुक्तिबोध से आगे हैं यह स्वीकार किया जाना चाहिए, वहीं अज्ञेय को जनविरोधी समझ लेना भी अधूरी समझ होगी. उन्होंने कहा कि अज्ञेय कोप्रयोगवादी कवि कहा जाता है, लेकिन अज्ञेय प्रयोगवादी कवि नहीं है, वेपूरी परम्परा के प्रतीकों में जैसा इस्तेमाल करते हैं वह सचमुच विरल है.कलात्मक रचाव और काव्य विन्यास के सन्दर्भ में वे मुक्तिबोध से आगे हैंयह स्वीकार किया जाना चाहिए, वहीं अज्ञेय को जन विरोधी समझ लेना भीअधूरी समझ होगी. प्रो. सिंह ने अज्ञेय की चर्चित कविताओं 'नाच' और'असाध्य वीणा' को उधृत करते हुए कहा कि अज्ञेय के काव्य के सभी कला रूपोंका दर्शन 'नाच' में होता है. प्रथम सत्र में ही कवि-संस्कृतिकर्मी अशोकवाजपेयी ने कहा कि हमारा समय मध्य वर्ग को गोदाम बनाने का युग है जहांदुनिया को विचार के बदले वस्तुओं से बदल देने पर जोर है. उन्होंने कहाकि इस सन्दर्भ में अज्ञेय का रचना कर्म महत्वपूर्ण हो जाता है कि वेविचार पर पूरा आग्रह करते हैं. वाजपेयी ने अज्ञेय की कई महत्वपूर्णकविताओं का पाठ करते हुए कहा कि वे खड़ी बोली के सबसे बड़े बौद्ध कविहैं जो शान्ति और स्वाधीनता का संसार रचते हैं. उन्होंने कहा कि परम्परासे हमारे यहाँ साहित्य और कला चिंतन साझा रहा है लेकिन हिंदी आलोचनादुर्भाग्य से साहित्य तक सीमित रही है. इस सन्दर्भ में अज्ञेय के चिंतनको उन्होंने महत्वपूर्ण बताया. वरिष्ट समालोचक प्रो. नित्यानंद तिवारीने कहा कि सभ्यता ऐसे बिंदु पर पहुँच गई है जहां पूंजीवाद और प्रकृतिमें एक को चुनना पड़ेगा और तब हम देखेंगे कि अज्ञेय की कविता अंततः पूंजीके नहीं, प्रकृति और मनुष्यता के पक्ष में जाती है.प्रो. तिवारी ने कहाकि अज्ञेय में दार्शनिक विकलता का चरम रूप असाध्य वीणा में है,जोध्यानात्मक होती चली गई है.अज्ञेय की कुछ बहुत छोटी-छोटी कविताओं कीचर्चा करते हुए प्रो. तिवारी ने कहा कि बड़े संकट में छोटी चीज़ें भीअर्थवान हो जाती हैं, ये इसका उदाहरण है. इससे पहले हिन्दू कालेज केप्राचार्य प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव ने स्वागत किया और संयोजक डॉ.विजया सती ने संगोष्ठी की रूपरेखा रखी. सत्र का संयोजन कर रहीं डॉ. रचनासिंह ने वक्ताओं का परिचय दिया. दूसरे सत्र में विख्यात कवि और अज्ञेयद्वारा संपादित तीसरे सप्तक के रचनाकार प्रो. केदारनाथ सिंह ने कहा किमौन अज्ञेय के साहित्य का स्थाई भाव है और उनका पूरा लेखन इसी मौन कीव्याख्या है. उन्होंने कहा कि अज्ञेय की कविता पाठक और अपने बीच एक ओटखडा करती है और यह उनकी कविता की ख़ास तिर्यक पद्धति है. 'भग्नदूत' और'इत्यअलम' जैसे उनके प्रारंभिक संकलनों को पुनर्पाठ के लिए जरूरी बतातेहुए केदारजी ने कहा कि बड़ी कविता में वे रेहटरिक हो जाते थे वहीं छोटीकविताओं में उनकी पूरी रचनात्मक शक्ति और सामर्थ्य दिखाई पड़ती है.वैविध्य की दृष्टि से अज्ञेय को उन्होंने हिंदी के थोड़े से कवियों मेंबताया. केदारनाथ जी ने कहा कि अज्ञेय कविता के बहुत बड़े अनुवादक भीहैं. 'आधुनिक भावबोध और अज्ञेय की कविता' विषयक इस सत्र में दिल्लीविश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और सुपरिचित आलोचक प्रो.गोपेश्वर सिंह ने शीतयुद्ध के दौर में हिन्दी आलोचना के सन्दर्भ मेंअज्ञेय के कृतित्व पर विचार करते हुए कहा कि भारतीय कविता श्रव्यपरम्परा की रही है जिसे आधुनिक बनाने की कोशिश अज्ञेय ने की. प्रो.सिंह ने कहा कि इसी दौर में लघुमानव और महामानव की बहस में साहित्य कोलघु मानव अर्थात सामान्य मनुष्य की ओर मोड़ने के लिए भी अज्ञेय को श्रेयदिया जाना चाहिए, जिनका मनुष्य की गरिमा में गहरा विश्वास है. उन्होंनेकहा कि जिस यथार्थवाद की कसौटी पर अज्ञेय को खारिज किया जाता है वह ढीलीढाली है अतः कविता के इतिहास पर दुबारा बात की जानी चाहिए. जवाहरलालनेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र के प्रो. गोबिंद प्रसाद नेकहा कि अज्ञेय बेहद आत्मसज़गता के कवि थे, जो ताउम्र अपनी छाया को हीलांघते रहे, अपने से लड़ते रहे. उन्होंने कहा कि अज्ञेय ने आधुनिकता कोएक निरंतर संस्कारवान होने की प्रक्रिया से भी जोड़कर देखा है, जहां स्वऔर आत्म पर बेहद आग्रह है. प्रो. प्रसाद ने कहा कि इसका एक सिरा जहांअस्मिता और इयत्ता से जुड़ता है वहीं दूसरा आत्मदान और दाता भाव से भी.कवि और कविता की रचना प्रक्रिया पर जितनी कवितायें अज्ञेय ने लिखी हैंउतनी और किसी हिन्दी कवि ने नहीं. इस सत्र का संयोजन विभाग के अध्यापकडॉ. पल्लव ने किया.दूसरे दिन सुबह पहले सत्र में पटना विश्वविद्यालय में आचार्य रहे आलोचकप्रो. गोपाल राय 'शेखर एक जीवनी' पर अपने सारगर्भित व्याख्यान में कहाकि बालक के विद्रोही बनने की प्रक्रिया में अज्ञेय ने गहरी अंतरदृष्टिऔर मनोवैज्ञानिकता का परिचय दिया है, वहीं प्रेम के प्रसंग में भी उनकावर्णन और भाषाई कौशल अद्भुत है. उन्होंने विद्रोह, क्रान्ति और आतंक मेंभेद बताते हुए कहा की यदि इस उपन्यास का तीसरा भाग आ पता तो शेखर केविद्रोह का सही चित्र देखना संभव होता, उपलब्ध सामग्री में विद्रोहकर्मशीलता में परिणत नहीं हो पाया है. कथाकार और जामिया मिलिया के हिंदीआचार्य प्रो. अब्दुल बिस्मिलाह ने अज्ञेय की कहानियों पर अपने व्याख्यानमें श्रोताओं का ध्यान कई नए बिन्दुओं की ओर आकृष्ट किया. उन्होंनेआदम-हव्वा की प्राचीन कथा का सन्दर्भ देते हुए कहा कि सांप मनुष्य कोविद्रोह के लिए उकसाने वाला जीव है और अज्ञेय की कहानियों में सांप कीबार बार उपस्थिति अकारण नहीं है. प्रो. बिस्मिल्लाह ने कहा कि विभाजनऔर साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में लिखी गई अज्ञेय की कहानियां अब औरअधिक महत्वपूर्ण और प्रसंगवान हो गई हैं. उन्होंने कहा कि अज्ञेय केसाहित्य में विद्रोह वही नहीं है जो दिखाई दे रहा है अपितु भीतर भीतर पलरहा विद्रोह कम नहीं है. आलोचक और हिन्दू कालेज में सह आचार्य डॉ.रामेश्वर राय ने कहा कि अज्ञेय के लिए व्यक्ति मनुष्य की सत्ता उसकीविचार क्षमता पर निर्भर करती है और उनके लिए विचार होने की पहली शर्तअकेले होने का सहस है.डॉ. राय ने इश्वर,विवाह और नैतिकता के सम्बन्ध मेंअज्ञेय के चिंतन पर चर्चा करते हुए कहा कि उनके यहाँ विद्रोह जंगल होजाने की आकांक्षा है जिसके नियम इतने सर्जनात्मक हैं कि व्यक्ति के विकासमें कोई दमन न हो. समापन समारोह में वरिष्ट आलोचक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. निर्मला जैन ने कहा किअज्ञेय को कविता में किसी भी वस्तु या विषय के ब्रांडधर्मी उपयोग परआपत्ति थी और उनके लिए कविता तथा जीवन का यथार्थ एक ही नहीं था.उन्होंने कहा कि व्यक्ति की अद्वितीयता में अज्ञेय की आस्था अडिग है औरवे इतनी दूर तक ही 'मैं' को समाज के लिए अर्पित करने को प्रस्तुत हैं किउनका अस्तित्व बना रहे. प्रो. जैन ने अज्ञेय की चर्चित कविता 'नदी केद्वीप' को उधृत करते हुए कहा कि अज्ञेय अपने चिंतन को कविता के रूप मेंबयान करते हैं.उन्होंने शताब्दी वर्ष में केवल रचनाकार के गुणगान तकसीमित रह जाने के खतरे से आगाह करते हुए कहा कि क्लिशे में जाने कि बजायपलट पलट कर देखना होगा कि दूसरी आवाजें तो नहीं आ रहीं हैं. समापन सत्रमें ही कवि-संस्कृतिकर्मी प्रयाग शुक्ल ने कहा कि अज्ञेय सोचते हुएलेखक कवि हैंजो आधुनिक बोध को लाये. उन्होंने कहा कि हिन्दी को अज्ञेय की जरूरत थी. शुक्ल ने अज्ञेय की कई महत्वपूर्ण कविताओं का पाठ करते हुएकहा कि वे भाषा के सावधान प्रयोग के लिए याद किये जायेंगे. उन्होंनेअज्ञेय से जुड़े अपने कई संस्मरण भी सुनाये. वरिष्ट कथाकार राजी सेठ नेइस सत्र में अज्ञेय के चिंतन पक्ष पर विस्तार से विचार करते हुए कहा किउनका चिंतन कर्म और काव्य कर्म वस्तुतः अलग नहीं है .लेकिन यहाँ समस्याहोती है कि क्या अज्ञेय की कविता उनके चिंतन की अनुचर है?आयोजन स्थल पर अज्ञेय साहित्य और अज्ञेय काव्य के पोस्टर की प्रदर्शनी को भरपूर सराहना मिली. आयोजन में अंग्रेजी समालोचक प्रो. हरीश त्रिवेदी,कवि अजित कुमार,युवा आलोचक वैभव सिंह सहित बड़ी संख्या में श्रोताओं नेभाग लिया.

पल्लव


हिन्दी विभाग


हिन्दू कालेज


दिल्ली विश्वविद्यालय


नई दिल्ली- 110007


मो. 08800107067
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