चित्तौड़गढ़ 12 अक्टूबर। सन्त जहाँ प्रकट हुए सोई तीरथ धाम यानि ‘जहाँ सन्त प्रकट होते हैं, उसे ही तीर्थ माना जा सकता हैं।’ इस उक्ति के माध्यम से डाॅ. ब्रजेन्द्रकुमार सिंहल ने मीरा को क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर उनके प्राकट्य स्थल चित्तौड़गढ़ को नमन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि मेवाड़ की यह पावन धरा ही मीरा का पावन धाम और उनके नाम का तीर्थ हैं। इसी कारण मीरा के काल में कईं सन्त मेवाड़ आये और वह मीरा भक्ति के प्रचार-प्रसार में भागीदार बने। उन्होंने मीरा के जन्म के सम्बन्ध में चल रही भ्रान्तियों पर विराम लगाते हुए ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट किया की मीरा का स्थान मेड़ता ही हैं।
डाॅ. सिंहल बुधवार को मीरा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय मीरा संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित कर रहे थे। इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रमुख इतिहासकार पं. राजेन्द्रशंकर भट्ट और अध्यक्ष डाॅ. किशोर काबरा थे। डाॅ. सिंहल ने मीरा को भक्ति की विभिन्न सम्प्रदायों से अलग करते हुए कहा कि वे केवल भक्त के रूप में स्थापित हो चुकी थी इसीलिए उन्होंने भक्ति के किसी भी पंथ को स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि वृन्दावन जाने पर उन्हें अपने गिरधर गोपाल के अलावा विभिन्न भक्ति सम्प्रदायों से जुड़ाव नहीं हो सका। उन्होंने मीरा के कथित रूप से गुरु रैदास की ऐतिहासिक विवेचना करते हुए कहा कि नाम विभेद के कारण भले ही लोक मानते हो लेकिन काल खण्ड के आधार पर रैदास मीरा के गुरु नहीं रहे। बल्कि उन्होंने अपने पदों में कईं सन्तों और भक्तों का उल्लेख कर उन्हें सम्मान अवश्य दिया है। उन्होंने दूर्ग स्थित मीरा मन्दिर और कुम्भ श्याम मन्दिर की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में बताया कि महाराणा कुम्भा की एक झाली राणी का नाम मीरा होने से सम्भवतः ये मन्दिर उन्हीं के द्वारा बनाये गये हो। लेकिन कालान्तर में लोक भावना के अनुसार इसे मेड़तणी मीरा का मन्दिर मान लिया गया।
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने कहा कि मीरा का समुचा जीवन स्वातंत्र प्रेम को प्रकट करने वाला था व अपने काल में लोक और मर्यादा से परे ऊपर उठकर अपने आराध्य गिरधर गोपाल की आशक्ति भावना में डूबी रहती थी। इसीलिए उन्होंने कहा ‘‘दासी मीरा लाल गिरधर होनी हो सो होई’’ मीरा वैचारिक स्तर पर दृढ़ निश्चयी थी। इसीलिए उन्होंने संसार के उल्लाहनों की परवाह नहीं की। मीरा कृष्ण की सगुण भक्ति धारा की उपासक थी। तथापि वे सगुण व निगुर्ण के बीच कोई भेद नहीं मानती थी। इसीलिए उन्होंने ‘सहज मिले अविनाशी’ का उल्लेख किया था।
संगोष्ठी में कलकता से प्रकाशित वैचारिकी पत्रिका के सम्पादक मूलतः बीकानेर के बाबूलाल शर्मा ने कहा कि ‘मीरा ने राजस्थान को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दी है।’ उन्होंने कहा कि सगुण भक्ति की सीमा होती है जबकि निर्गुण असीम हैं। लेकिन मीरा ने इन दोनों के मध्य समजस्य बनाते हुए अपने पदों की रचना की हैं। संगोष्ठी में डाॅ. जीवराज सोनी ने मीरा के जीवन वृत पर विस्तार से प्रकाश डाला संगोष्ठी का संचालन करते हुए डाॅ. एस.एन. व्यास ने आकन्तुक विद्वानों का परिचय कराते हुए श्रीमद् भागवद महापुराण के सन्दर्भ में सगुण व निर्गुण भक्ति का विवेचनात्मक विशलेषण किया। प्रारम्भ में मीरा स्मृति संस्थान की ओर से अध्यक्ष भंवरलाल शिशोदिया, सचिव प्रो. एस.एन. समदानी एवं अन्य सदस्यों ने विद्वानों का माल्यार्पण कर स्वागत किया। संगोष्ठी में भाग लेने आये अन्य विद्वान स्थानीय साहित्य मनीषी एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
राम प्रसाद मूंदड़ा
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