http://4.bp.blogspot.com/-5q2Nk3tjs9Q/VKmAzEK3cyI/AAAAAAAAD_U/L2HsJAmqhFg/s1600/eyetechnews%2BHeaderpngnew1.png

कविता समय .2011 की रिपोर्ट

‘कविता समय’ 2011 से आयोजना की जिस शृंखला की शुरुआत हुईए उसे आमतौर पर भागीदारी कर रहे मित्रों ने ऐतिहासिक कहाए हांलाकि अशोक वाजपेयी ने हिन्दी में अधीरतापूर्वक ऐतिहासिकता लाद दिये जाने की प्रवृति से इसे जोड़ा लेकिन इस रूप में तो यह उन्हें भी ऐतिहासिक लगा कि लंबे समय बाद इतने कवि सहभागिता के आधार पर साथ बैठकर ‘कविता के संकटों’ पर बात कर रहे हैं। मदन कश्यप ने सार्वजनिक और व्यक्तिगत दोनों ही तौर पर ही कहा कि यह कार्यक्रम इसलिये भी ऐतिहासिक था कि पिछले बीसेक सालों से एक ऐसा माहौल बना है कि लेखक अपने ख़र्च पर किसी जगह जाने से बचते हैं…साथ ही इससे आगे यह कि लोग इस तरह से बुलाने से भी बचते हैंए इसका असर यह हुआ है कि हिन्दी का सारा विमर्श संस्थानों और अकादमिकता के उत्सवधर्मी आयोजनों में सिमट गया है लेकिन कविता समय ने इसे तोड़ा और इतने सारे कवि.आलोचक अपनी मर्ज़ी से यहां न सिर्फ़ आये बल्कि बिल्कुल आत्मीय माहौल में अपनी चिंतायें साझा कर रहे हैं। ऐतिहासिकता के किसी दावे से अलग हम इस आत्मीयता और साझेपन से अभिभूत हैं।
हड़बड़िये और अनुभवहीन स्थानीय आयोजक के चलते कार्यक्रम 12 बजे की जगह एक बजे शुरु हो पाया। पहला सत्र था ‘कविता और यूटोपिया’ जिसमें पैनल सदस्य थे बोधिसत्वए आशुतोष कुमारए मदन कश्यपए नरेश सक्सेना और अशोक वाजपेयी। नामवर सिंह अपनी अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाये थे और उनके रेकार्डेड संदेश को शाम के सत्र में ही सुना जा सका। बोधिसत्व ने संयोजन समिति की तरफ़ से कविता के आरोप पत्र का पाठ करते हुए समकालीन कविता पर लगाये जाने वाले लगभग 30 आरोपों और दिये जाने वाले 10 सुझावों को सामने रखा और पूछा कि इन्हें आँख मूँद कर मान लेना चाहिये या फिर इनकी पड़ताल होनी चाहिये। मदन कश्यप ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज जब किसानों से ज़मीनए आदिवासियों से जंगल और नौजवान से रोज़गार छीना जा रहा है तो कविता का यूटोपिया समानता आधारित समाज की स्थापना ही हो सकता है। आशुतोष कुमार ने अपने लंबे लेकिन सुगठित वक्तव्य में कविता की जनपक्षधर होने की ज़रूरत को दृढ़ता से सामने रखा। नरेश सक्सेना जी ने अपने चुटीले अंदाज़ में समकालीन कविता के संकटों पर तमाम बातें रखीं। मंचों से अच्छी कविता के पलायनए प्रकाशकों की बदमाशियों से लेकर कवियों की समस्याओं और कमियों पर उन्होंने विस्तार से बात की। संचालक गिरिराज यूटोपिया की याद बार.बार दिलाते रहे लेकिन वक्ता संकट पर ही केन्द्रित रहे। अंत में अशोक वाजपेयी ने वही कहा जिसे वह वर्षों से कहते आ रहे हैं। कलावाद की प्रतिष्ठा स्थापित करते हुए उन्होंने सभी मोर्चों से प्रतिबद्धता पर हमला बोला। दोनों में अंतर बताते हुए उनका कहना था कि ‘हम जानते हैं कि कविता दुनिया नहीं बदल सकतीए लेकिन फिर भी ऐसे लिखते हैं कि मानो दुनिया बदल जायेगीए जबकि प्रतिबद्ध लोग इस तरह लिखते हुए विश्वास करते हैं कि दुनिया बदल सकती है।’ अशोक जी के वक्तव्य से माहौल गरमा चुका थाए तमाम युवा कवि सवाल पूछने को व्यग्र थे लेकिन साढ़े तीन बज चुके थे और लंच को और टाला नहीं जा सका।
लंच के बाद साढ़े पाँच बजे अलंकरणए विमोचन और कविता पाठ का सत्र शुरु हुआ। नामवर जी का रेकार्डेड संदेश सुनवाया गया जिसमें उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से न आ पाने का खेद व्यक्त किया था और कवियों को सलाह दी थी कि वे दूसरी विधाओं में भी लिखें। पूर्व घोषित सूचना के अनुसार चंद्रकांत देवताले जी को उनकी अनुपस्थिति में ‘कविता समय सम्मान.2011’ और कुमार अनुपम को ‘कविता समय सम्मान.2011’ दिया गया। देवताले जी ने अपने संदेश में कविता समय की टीम को शुभकामनायें भेजीं थीं और इस सम्मान को ‘युवाओं द्वाया अपने वडील को दिया गया स्नेह’ कहते हुए इसकी तुलना ‘पहल सम्मान’ से की। उन्होंने भी संक्षेप में कविता के संकट को जीवन के संकट से जोड़ते हुए प्रतिबद्धता से जनता के पक्ष में खड़े रहने की अपील की। अनुपम ने पूरे संकोच से दिये गये अपने वक्तव्य में ‘कविता समय’ के प्रति आभार व्यक्त किया। इसी क्रम में प्रतिलिपि प्रकाशन द्वारा 20 हिन्दी कवियों की कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद के संकलन ‘होम फ़्राम ए डिस्टेंस’ का विमोचन भी हुआ।
इसके बाद कविता पाठ का सत्र था जिसमें अशोक वाजपेयीए नरेश सक्सेनाए मदन कश्यपए ज्योति चावलाए प्रतिभा कटियारए पंकज चतुर्वेदीए प्रियदर्शन मालवीयए केशव तिवारीए अरुण शीतांशए निरंजन श्रोत्रियए कुमार अनुपमए प्रांजल धरए रविकांतए सुमन केशरी सहित अनेक कवियों ने काव्यपाठ किया। संचालन अशोक कुमार पाण्डेय ने किया।
जो कुछ बच गया था वह डिनर के वक़्त हुआ। ख़ूब आत्मीय और अनौपचारिक बहस…अगले दिन के लिये माहौल तैयार था…
अगले दिन की शुरुआत समय से बस आधे घंटे देर से हुई। कार्यक्रम के आरंभ में अशोक कुमार पांडेय के सद्य प्रकाशित कविता संकलन ‘लगभग अनामंत्रित’ का विमोचन मदन कश्यपए सुमन केशरीए बोधिसत्व और तुषार धवल ने किया।
पहले सत्र का विषय था – ‘कविता का संकटरू कविताए विचार और अस्मिता’। बहस की शुरुआत करते हुए सुमन केशरी ने कविता की पहुंचए उसके वैचारिक कंटेट और उसके संकटों पर तमाम सवाल खड़े किये। उनका कहना था कि कविता में वैचारिक अति हो गयी है। उसे मध्यमार्ग पर चलना होगा। जितेन्द्र श्रीवास्तव ने बिंदुवार चर्चा करते हुए कविता से संप्रेषणीयताए विविधता का अभाव और लय के पलायन का सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि जब तक कविता संप्रेषणीय नहीं होगी तब तक उसका पाठक तक पहुंचना मुश्किल होगा। बहस में हस्तक्षेप करते हुए ज्योति चावला ने कुछ विचारोत्तेजक सवाल उठाये।
उनका कहना था कि अस्मिता के साहित्य पर आरोप लगाने वालों को यह सोचना चाहिये कि ऐसा क्या है कि साहित्य अकादमी से लेकर भारत भूषण पुरस्कार की सूची से महिलायेंए दलित और मुसलमान ग़ायब हैंघ् उन्होंने आयोजकों को भी कटघरे में खड़ा करते हुए सवाल किया कि यहां इन वर्गों का प्रतिनिधित्व कम क्यूं हैघ् उनका कहना था कि अस्मितावादी लेखकों पर केवल अपनी समस्याओं पर लिखने का आरोप तब तक बेमानी है जब तक दूसरे लोग उन पर नहीं लिखते। माहौल गर्मा चुका था…लोग प्रतिप्रश्न कर रहे थेए टिप्पणियाँ दे रहे थे लेकिन संचालक गिरिराज ने स्थितियों को संभालते हुए सवालों को बाद के लिये सुरक्षित कर लिया। नलिन रंजन सिंह ने अपने लिखित परचे में कविता के संकट को आज के वैचारिक संकट से जोड़ा। उनका मानना था कि आज की कविता में विविधता या संप्रेषणीयता कि इतनी भयावह कमी भी नहीं है। उन्होंने कहा कि आज हिन्दी में बहुत अच्छी कवितायें लिखी जा रही हैं लेकिन वे पाठक तक नहीं पहुंच पा रही हैं। इसके कारण कविता के बाहर भी ढ़ूंढ़ने होंगे। प्रियदर्शन मालवीय ने विजयदेव नारायण साही को कोट करते हुए साहित्य में वैचारिक खेमेबंदी की और इशारा किया। बोधिसत्व ने कबीर का दोहा उद्धृत करते हुए कहा कि साहित्य और राजनीति का मध्य मार्ग अलग.अलग होता है। पंकज चतुर्वेदी ने भी कुछ विचारोत्तेजक सवाल उठाते हुए वैचारिक प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया। उन्होंने कविता की सम्यक आलोचना के अभाव को रेखांकित करते हुए कहा कि कविता समय इस स्पेस को भर सकता है। सत्र के अंतिम वक्ता मदन कश्यप अशोक वाजपेयी के सवालों से रु ब रु हुए और नुक़्ता ब नुक़्ता कलावाद के तर्कों की धज्जियां उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि कविता बंदूक नहीं चलातीए हड़ताल भी नहीं करती लेकिन वह वैचारिक लीद की सफ़ाई ज़रूर करती है। वह लोगों का अपने समय के सच से साक्षात्कार कराती है। जनपक्षधर कविता ने यह काम बख़ूबी किया है। चूंकि वह पूंजीवाद के ख़िलाफ़ खड़ी हैए सांप्रदायिकता और व्यक्तिवाद पर हमला बोलती है इसलिये इनकी पैरोकार सरकारें तथा मीडिया इसे दबाने का भरपूर प्रयास करती हैं। अस्मिता के सवाल पर उन्होंने कहा कि हमें स्वीकारना होगा कि दलितए स्त्री और अल्पसंख्यक प्रश्न को हमने वह तवज्जो नहीं दिया जो देना चाहिये थाए लेकिन ऐसा भी नहीं कि ये वर्ग मुख्यधारा के साहित्य से बहिष्कृत रहे। गुजरात और अयोध्या के दौरान लिखी गयी कविताओं का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि दरअसल उत्तर आधुनिकता की लहर में अस्मिता के सवाल को बड़ी लड़ाई स्थगित रखने के लिये उठाया जा रहा है। इसके बाद ख़ुले सवाल जवाब हुए जिसमें तमाम सारी बातें सामने आईं।
लंच के बाद एक बार फिर कविता पाठ का सत्र था जिसमें बोधिसत्वए जितेन्द्र श्रीवास्तवए तुषार धवलए उमाशंकर चौधरी सहित बीसेक कवियों ने कविता पाठ किया। इसके बाद आगामी योजनाओं का सत्र था। यह तय किया गया कि इस आयोजन को हर साल किया जाये। वक्ताओं का कहना था कि अब कवियों को ख़ुद आगे आना होगा। कविता समय में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई है उन्हें प्रिण्ट तथा नेट दोनों माध्यमों से जनता के बीच ले जाना होगा। यह तय किया गया कि कविता समय आगामी पुस्तक मेले के पहले कुछ प्रकाशन लेकर आयेगा। इसे सहभागिता आधारित कार्यक्रम बनाये रखने पर भी ज़ोर दिया गया और इस निर्णय का स्वागत किया गया कि किसी व्यक्ति से दस हज़ार और संस्था से 20 हज़ार से अधिक का सहयोग नहीं लिया जायेगा। संयोजन समिति की ओरे से गिरिराज किराडू ने अगले कुछ दिनों में अपनी प्रकाशन योजनायें तय कर जनता के सामने प्रस्तुत करने का वादा किया।
Share on Google Plus

About Eye Tech News

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment