नया इंडिया, 15 मार्च 2012 : अंग्रेजी राष्ट्रीय डायन है। वह हर साल हमारे करोड़ों बच्चों को नोच-नोचकर खाती जाती है लेकिन हमें पता ही नहीं चलता। हम हमारे 20 करोड़ बच्चों को हर साल पूतना के पालने में फेंककर खुश होते रहते हैं। हम मानकर चलते हैं कि पूतना बलिष्ठ है, विशालकाय है, दुग्धा है। उसकी छत्रछाया में पलेंगे तो ये बच्चे बड़े होकर बड़ी-बड़ी नौकरियां पकड़ लेंगे, पैसा और सम्मान कमाएंगे और विदेशों में छलांग लगाएंगे। यह लालच हमारी आंखों पर पट्टी बांध देता है। देश के करोड़ों ग्रामीण, गरीब, दलित और पिछड़े बच्चे रोज़ तिल-तिलकर मरते जाते हैं। यह सामूहिक मौत इतनी अदृश्य और आहिस्ता है कि हमें इसकी भनक तक नहीं लगती लेकिन जब अनिल कुमार मीणा और बालमुकुंद भारती जैसे लड़के फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं तो हमारा दिल करूणा से भर उठता है और हम सोचने लगते हैं कि हाय, इन आदिवासी और दलित छात्रों को मरने से कैसे बचाया जाए? इनकी अक्षमता को दूर कैसे किया जाए? इनकी अयोग्यता की भरपाई कैसे हो? हम कितने दयालु हैं?
सच्चाई तो यह है कि हम दयालु नहीं हैं, हम मूर्ख हैं। हमारी सरकारें मूर्ख हैं, हमारे शिक्षाशास्त्री मूर्ख हैं, हमारे नेता मूर्ख हैं। हम मूर्ख इसलिए हैं कि हम झूठ को सच मानकर आगे बढ़ना चाहते हैं। हमने इस झूठ को सच मान लिया है कि मेडिकल इंस्टीट्यूट में आत्महत्या करनेवाले छात्र पढ़ाई में कमजोर थे। इसी कारण वे हर साल फेल हो जाते थे। इसीलिए हताश होकर वे आत्महत्या कर लेते हैं। यह शुद्ध झूठ है। यदि वे पढ़ाई में कमजोर थे तो यह बताइए कि 12 वीं कक्षा की पढ़ाई तक वे हमेशा सर्वोच्च अंक कैसे प्राप्त करते रहे? मेडिकल की अत्यंत कठिन भर्ती परीक्षा में अनिल मीणा के 75 प्रतिशत नंबर कैसे आए? अनिल और बालमुकुंद, एक आदिवासी और एक दलित, ये दोनों नौजवान अपने-अपने परिवार और गांव की आंख के तारे थे लेकिन मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होते से ही उन्हें क्या हो गया? वे फेल क्यों हो गए?
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