Dr. वैदिक
नया इंडिया, 8 मार्च 2012 : उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम यह बताते हैं कि भारत की राजनीति में कुछ मौलिक परिवर्तनों का शुभारंभ हो रहा है। इन चुनाव-परिणामों से इतने संकेत उभर रहे हैं कि यहां उनका वर्णन सूत्र रूप में ही किया जा सकता है। पहला, राष्ट्रीय सरकार का नेतृत्व पहली बार कोई प्रादेशिक पार्टी कर सकती है। अब तक कांग्रेस की जगह केंद्र में जितनी भी गठबंधन-सरकारें बनीं, उनका नेतृत्व अखिल भारतीय पार्टियाँ ही करती रही हैं। इस बार यह काम मुलायम सिंह जैसा अनुभवी और कद्दावर नेता कर सकता है।
दूसरा, यह काम दो प्रकार से हो सकता है। एक तो सिर्फ गैर-कांग्रेस मोर्चा बने, जिसमें भाजपा से लेकर माकपा तक सभी पार्टियाँ आ सकें, जैसे कि 1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया ने बनाया था। यदि इस मोर्चे के निर्माण में कुछ अपरिहार्य कठिनाइयॉं दिखाई पड़ें तो फिर तीसरा मोर्चा बनाना ज्यादा आसान है। यह गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा संगठन होगा। अब दोनों पार्टियों की सम्मिलित शक्ति-संसद और विधानसभाओं में मुश्किल से 50 प्रतिशत के आस-पास है। तीसरा मोर्चा बनने की संभावनाएं जैसे ही दिखाई पड़ी, उसका समर्थन-प्रतिशत 50 प्रतिशत के आंकड़े को आसानी से पार कर लेगा।
तीसरा, इस चुनाव ने भारत की वंशवादी राजनीति को रद्द किया है। राहुल को रद्द किया लेकिन अखिलेश को तो स्वीकारा। तो वंशवादी राजनीति रद्द कैसे हुई? उ.प्र. की जनता ने दोनों युवकों को गुणों की तुला पर तौला। उसने राहुल को अति नाटकीय, उद्दंड, अहमन्य और सतही पाया जबकि अखिलेश को संयत, मर्यादित, विनम्र और गंभीर पाया। अगर जनता सिर्फ वंशवादी होती तो अखिलेश की बजाय राहुल के साथ जाती लेकिन उसने जन्म के सत्य के मुकाबले कर्म के सत्य को प्रमुखता दी।
चौथा, बिहार की तरह उ.प्र. की जनता ने भी इस बार जातीय समीकरण के आधार को निरस्त कर दिया। उसने 84 आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में से 54 सीटें सपा को दीं। बसपा को सिर्फ 17 सीटें मिलीं याने दलितों ने भी सपा को पसंद किया। वे मूर्तियों, पार्कों और आंबेडकर, ज्योति बा फुले आदि नामों पर नहीं फिसले। 2007 में बसपा को 89 में से 62 सीटें मिली थीं याने पांच साल में बर्बाद किए गए अरबो रू. के बावजूद दलितों ने जात के नाम पर भेड़चाल नहीं चली। जात का कार्ड फेल हो गया। सपा को पिछड़ों और दलितों के वोट तो मिले ही, सवर्णों के भी पर्याप्त वोट मिले, वरना वह उ.प्र. के शहरों में इतनी सीटें कैसे जीतती? यदि मायावती का जाटव वोट बैंक भी ढरक जाता तो उनका हाल भी कांग्रेस-जैसा ही हो जाता। उमा भारती और बाबूसिंह कुशवाहा के बावजूद भाजपा आखिर पटखनी क्यों खा गई? उसे जातीय वोट क्यों नहीं मिले?
पांचवा, इस बार उ.प्र. में सांप्रदायिक कार्ड भी नहीं चल पाया। उ.प्र. में मुसलमानों की आबादी 18-20 प्रतिशत है। कांग्रेस ने मुस्लिम कोटे का दाना फेंका लेकिन मुसलमानों ने उसे बहुत मुश्किल से चुगा। इसीलिए 140 मुस्लिम महत्व की सीटों में से उसके हाथ सिर्फ 11 सीटें लगीं। उनमें भी स्थानीय उम्मीदवारों की अपनी भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। कांग्रेस के मुस्लिम दांव का सीधा फायदा भाजपा को मिलना चाहिए था। हिंदू वोट थोकबंद होकर भाजपा के झोले में जाना चाहिए था लेकिन वह चला गया, सपा के झोले में। याने उ.प्र. के 15 करोड़ मतदाताओं ने उभय-सांप्रदायिकता को दरवाजा दिखा दिया। सपा ने 140 सीटों में से 72 जीत लीं और बसपा को सिर्फ 27 मिलीं। याने मायावती की तथाकथित सोश्यल इंजीनियरिंग धराशायी हो गई।
छठा, सिर्फ मजहब के आधार पर कुछ पार्टियों ने चुनाव लड़े लेकिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी। वे विभाजन के पहले की मुस्लिम लीग बनने की फिराक में थे लेकिन पीस पार्टी को चार, कौमी एकता दल और इत्तेहाद मिल्लत को सिर्फ एक-एक सीट मिली। इन मज़हब आधारित पार्टियों के कुल छः उम्मीदवार जीते जबकि धर्म-निरपेक्ष पार्टियों के उम्मीदवारों के तौर पर लगभग 63 मुसलमान विधानसभा में पहुंचे है।
सातवां, इस बार सभी पार्टियों के कुछ नेताओं ने अपने बेटों को उम्मीदवार बनवा दिया था। उ.प्र. की जनता ने उनमें से लगभग सबको धूल चटा दी। कांग्रेस के मंत्रियों के बेटे, पत्नी, राज्यपालों और सांसदों के रिश्तेदारों को मतदाताओं ने हरा दिया। भाजपा और बसपा के नेताओं के रिश्तेदारों की भी यही दुर्गति हुई। अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर की 15 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ दो ही सीटें हाथ लगीं। इस बार उ.प्र. की जनता ने कांग्रेस के अखिल भारतीय नेतृत्व के पसीने छुड़ा दिए। वह 2014 का बड़ा चुनाव क्या जिताएगा, वह अपनी पुश्तैनी मांद में ही पिट गया।
आठवां, उ.प्र., गोवा, पंजाब और उत्तराखंड के कारण अब कांग्रेस का पव्वा अपनी सहयोगी पार्टियों में भी पतला पड़ जाएगा। गठबंधन-सरकार पर दबाव बढ़ जाएगा। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के चुनावों पर भी भारी असर पड़ेगा। कांग्रेस-सरकार अब ढाई साल का लंबा समय कैसे काटेगी?
नौवॉं, उ.प्र. ने इस बार लगभग दर्जन भर अपराधी चरित्र के कुख्यात नेताओं को धराशायी कर दिया। उनमें से कई लगातार चुने जाते जा रहे थे। इस बार जो दादा लोग किसी कारण जीत गए हैं, उन्हें भी पहले से काफी कम वोट मिले हैं। इस चुनाव में सभी प्रमुख पार्टियों के टिकिट पर लड़ रहे जमींदार, जागीरदार और सामंत हमेशा की तरह अच्छे वोटों से जीते हैं।
दसवां, लोकपाल और काला धन-ये दोनों चुनाव के मुद्दे तो नहीं बने लेकिन इनके बहाने भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो जनाक्रोश उमड़ा था, उसने अपना रंग जरूर दिखाया। मायावती और कांग्रेस ने इसकी सीधी सजा भुगती। सपा से उ.प्र. ही नहीं, पूरा देश यह आशा करता है कि वह इस जन-भावना को समझे और इसके अनुसार अपना आचरण अनुकरणीय बनाए। अन्यथा, मायावती ने पांच साल बाद जो भुगता, सपा के लिए पांच माह बाद ही उसकी शुरूआत हो जाएगी। उ.प्र. का मुख्य संदेश यही है कि अब देश जाग चुका है, उसे अब जाति और धर्म की अफीम खिलाकर सुलाया नहीं जा सकता। अब नेतागण शासक नहीं, सेवक बनें। जनता को नारे नहीं, अब विकास चाहिए।
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