डॉ. वैदिक
15 March 2012: कांशीरामजी कहा करते थे, ‘तिलक, तराजू और तलवार’, इनको जूत मारो चार! मारे भी! मारकर कमाल भी दिखाया! जात के नाम पर उन्होंने संगठन खड़ा किया और उनकी चेली ने जातीय-समीकरण को भुनाकर सभी दलों का भुर्त्ता भी बना दिया लेकिन दस साल में ही सारा शीराजा बिखर गया| यदि कांशीरामजी जीवित होते तो उत्तरप्रदेश के ताजा चुनाव परिणामों को देखकर क्या कहते? वे क्या कहते, कुछ पता नहीं लेकिन ये चुनाव-परिणाम खुद ही कह रहे हैं, ‘जात को मारो जूते चार’|
हम जरा आंकड़े देखें| यदि समाजवादी पार्टी पिछड़ों की पार्टी है तो बहुजन समाज पार्टी को पिछड़ों की सीटें क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन मिली हैं और अच्छी-खासी मिली हैं| 33 सीटें मिली हैं| यह ठीक है कि सपा को 65 सीटें मिली हैं लेकिन आधी सीटें बसपा को मिली हैं| इसका अर्थ क्या है? क्या यह नहीं कि पिछड़े वर्गों के मतदाताओं ने अपनी जात के उम्मीदवारों को वोट तो दिए लेकिन यह जानते हुए दिए कि वे मायावती के अंगूठे के नीचे ही रहेंगे| उन्होंने सपा के पिछड़े उम्मीदवारों को वोट नहीं दिए| याने उन्होंने जात के बाड़े को तोड़ा|
सपा को पिछड़ी जातियों की पार्टी माना जाता है| लेकिन हुआ क्या? उसके 56 दलित उम्मीदवार जीत गए और बसपा के सिर्फ 16 दलित उम्मीदवार जीते| तीने गुने से भी ज्यादा अंतर! इसका अर्थ क्या हुआ? दलितों ने मायावती के दलित उम्मीदवारों को रद्द किया और मुलायमसिंह के दलित उम्मीदवारों को स्वीकार किया| तो प्रश्न यह है कि जात टूटी या नहीं? दलितों ने मायावती की जगह मुलायमसिंह को अपना नेता माना|
मतदाताओं ने जात ही नहीं, मजहब को भी रद्द किया| कुल 68 मुसलमान उम्मीदवार जीते| इनमें से आठ भी ऐसे नहीं हैं, जो मुस्लिम पार्टियों से आए हों| इस्लाम के नाम पर कोई भी दुकान नहीं चल पाई| यही हाल हिंदुत्व का हुआ| भाजपा को अगर हिंदू वोट मिल जाते तो उसको कम से कम 300 सीटें मिलतीं लेकिन उसे कुछ न कुछ घाटा ही हुआ| उसका उमा भारती और बाबूसिंह का जातिवादी दाव भी फेल हो गया| यही हाल सेम पित्रेदा वाली कांग्रेस का हुआ|
मुसलमानों पर यह आरोप भी गलत सिद्घ हुआ कि वे आंख मींचकर थोकबंद वोट करते हैं| यदि उन्होंने सपा को 43 सीटें दीं तो बसपा को 15 ! याने जात और मज़हब के आधार पर वोटरों ने मवेशियों की तरह नहीं बल्कि प्रबुद्घ नागरिकों की तरह वोट दिए| बधाई !
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