’वर्तमान समय के प्रश्न और रचनाकारों की भूमिका‘ पर दो दिन चली संगोष्ठी
लखनऊ. सुप्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार स्वयं प्रकाश को 19वें आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान से अलंकृत किया गया. उन्हें यह सम्मान आलोचक मुद्राराक्षस और उपन्यासकार गिरिराज किशोर ने दिया.सम्मान के तहत 15 हजार रुपये का चेक, स्मृति चिह्न, अंग वस्त्रम् और सम्मान पत्र दिया गया. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के यशपाल सभागार में हुए सम्मान समारोह के अध्यक्ष मुद्राराक्षस ने कहा कि बाजारवाद रोमन लिपि के जरिये लोगों में घुस चुका है. उन्होंने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि आधी आबादी जो गरीबी रेखा के नीचे रहती है, वह नारकीय जीवन व्यतीत कर रही है, लेकिन यह आबादी लेखकों की नजरों में नहीं आती जबकि प्रेमचंद के समय के समाज का समूचा चेहरा साहित्य में दिखता है. यही कारण है कि हिन्दी सीमित हो गयी है।इससे पूर्व आयोजन के संयोजक शैलेंद्र सागर ने स्व.श्रीलाल शुक्ल को याद करते हुए कहा कि वो हम सब के लिए कितना मायने रखते थे इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. कथाक्रम के लिए तो यह और भी दुखदाई है क्योंकि वह इसके संरक्षक थे. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ.राजकुमार ने सम्मानित कथाकार स्वयं प्रकाश के लेखन पर रोशनी डालते हुए कहा कि सांप्रदायिकता के विषय पर लिखी गई उनकी कहानियां काफी चर्चित रही हैं. उनकी अधिकतर कहानियों का जन्म वास्तविक परिवेश में हुआ है. स्वयं प्रकाश की कहानियों की विशेषता है कि उनकी शुरुआत चरित्रों से नहीं, उनकी आंतरिक भावनाओं से होती है. वह प्रेमचंद की परम्परा के असल वाहक हैं, जो यथार्थ को दिशा देता है.
पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कथाकार स्वयं प्रकाश ने हाल ही में ज्ञानपीठ से सम्मानित वरिष्ठ उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल को नमन करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार अमरकांत को भी ज्ञानपीठ सम्मान से समादृत करने के लिए ज्ञानपीठ परिवार को बधाई दी. उन्होंने कहा कि पहली बार कहानीकारों का दिल ज्ञानपीठ वालों ने जीता. वैश्वीकरण और बाजारवाद पर प्रहार करते हुए स्वयं प्रकाश ने कहा कि बाजार हमारे छोटे भाइयों यानी नयी पीढ़ी में घुस चुका है. वह हमारे मूल्यों को नष्ट कर रहा है. इस कारण हमें सोचना होगा कि हमें किस प्रकार का समाज बनाना होगा. स्वयं प्रकाश ने सभी को आगाह किया कि नकलची बंदर बनने से परहेज करें. उन्होंने कहा कि कहानीकार अक्सर अपने कथ्य के कारण याद किया जाता है, पर केवल कथ्य ही नहीं शिल्प भी उतना ही महत्वपूर्ण है. सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर ने कहा कि सम्मानित कथाकार स्वयं प्रकाश का बहुत बड़ा पाठक वर्ग है और उन्होंने कहानी को नये तरीके से कथा सम्राट प्रेमचंद के साथ जोड़ा है. वैश्वीकरण के हिंदी पर प्रभाव की बात पर उन्होंने कहा कि जब तक गाँव हैं, तब तक हिंदी पर खतरा नहीं है. हालांकि बोलियों को जिस तरह से भाषा का दर्जा दिलाने की होड मची है, वह ठीक नहीं है क्योंकि इससे हिंदी दरिद्र हो जाएगी. सम्मान सत्र के तत्काल बाद वर्तमान समय के प्रश्न और रचनाकारों की भूमिका विषय पर संगोष्ठी प्रारम्भ हुई जो अगले दिन भी जारी रही. इस चर्चा में जहां कई बार गर्मजोशी देखी गई वहीं साहित्य की सिमटती दुनिया पर चिंता में डूबे लेखकों के अपने आकलन और विवेचन भी थे. इस चर्चा का प्रारंभ कथाकार राकेश कुमार सिंह के पत्र वाचन से हुआ जिन्होंने कहा कि भूमण्डलीकरण का नकाब मौजूदा समय में भी पूरी तरह से उतरना बाकी है. समाजशास्त्री अभय कुमार दुबे ने कहा कि साहित्यकार और अन्य लोग भी कहते है कि हिन्दी खत्म हो रही है. कुछ लोग 30 या 40 साल में हिन्दी के खत्म होने की भविष्यवाणी करते है जिसका कोई औचित्य नहीं है. दुबे ने जोर देकर बताया कि परिवर्तन के प्रचलित औजार अब नाकाफी हैं और उनसे कुछ हो सकने की आशा बेकार है. साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा कि साहित्य का दृष्टिकोण उस स्थितियों का होता है, जिसमें वह रह रहा होता है, लेकिन साहित्यकार की नजर कमजोर वर्ग पर होनी चाहिए. उद्भावना के सम्पादक अजेय कुमार ने कहा कि अमेरिका ने जितने भी हमले किये वह तेल के साम्राज्य पर कब्जा करने के लिए हुए है. छह लाख से ज्यादा लोग मारे गये, लेकिन रचनाकारों का ध्यान उस तरफ नहीं गया. उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा ने कहा कि रचनाकारों का रास्ता प्रतिरोध का ही है. इस कारण समाज का सच्चा प्रेरक साहित्यकार ही होता है. रचनाकारों के लिए शब्द कर्म है और लेखकों को जकड़बन्दी से दूर होकर अपना काम करना होगा. कहानीकार शशांक ने अपने पुत्र के प्रसंग को सुनाते हुए कहा कि नयी पीढ़ी की डिमाण्ड को भी देखना होगा, जिससे नयी पीढ़ी उस भाषा और आचरण को अपना सके. इस सत्र की अध्यक्षता कर रही उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि सब बातें हुईं लेकिन स्त्रियों पर किसी ने कोई बात नहीं की,वह तो स्त्री विमर्श ही करेंगी. उन्होंने कहा कि साहित्यकारों ने कहा कि भाषा क्षीण हो रही है, कुछ खास लिखा नहीं जा रहा है, कुछ नया सोचा भी नहीं जा रहा, जो लिखा जा रहा है उसे पढ़ा भी नहीं जा रहा है, लेकिन आधी दुनिया को निष्क्रिय मत समझिये. बहुत कुछ लिखा जा रहा है और अच्छा भी लिखा जा रहा है. जो लोग भूमण्डलीकरण और बाजारवाद पर इतना प्रहार करते है पहले वह अपने घर से शुरुआत करें. विदेश में कमाई करने वाला बच्चा आखिर अपने साथ सिर्फ पैसा ही नहीं लाएगा बल्कि वह पश्चिमी संस्कृति को भी देश में लेकर जरूर आएगा. उन्होंने कहा कि महिलाओं पर तो आज भी काफी बंधन हैं पहले बंधन हटायें तो कुछ काम बने. प्रेमचंद के समय की स्त्रियों से आज बहुत भिन्न स्थितियां है. लोग कहते है कि किताबें महंगी हो गयी है लेकिन शराब महंगी होने की बात कोई नहीं करता.
कथाक्रम सम्मान समारोह के दूसरे दिन चर्चा में मौजूदा समय का सबसे बड़ा प्रश्न भूमण्डलीकरण और नयी पीढ़ी के बीच घर बनाता जा रहा बाजारवाद रहा. उपन्यासकार शिवमूर्ति ने अपने चुटीले उद्बोधन में सवाल उठाया कि प्रेमचंद ने जो दिया उसके आगे हमने क्या किया. इरोम शर्मिला बारह साल से अनशन कर रही है, लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता. लेखकों को अपनी भूमिका पर विचार करना होगा. सुरक्षित रास्ता अपनाने से काम नहीं चलने वाला है. वरिष्ठ कथाकार अखिलेश ने कहा कि बहुत नया होना भी साहित्य में संभव नहीं है,इसके लिए बलि देनी होती है. आज इंसानियत को बदल देने का सपना नहीं बचा है. उन्होंने कहा कि किसी भी चुनौती और प्रश्न का मुकाबला दो तरीके से करना होता है. एक उसी के प्रभाव में बह जाया जाए या दूसरा तरीका यह होता है कि चुनौतियों का मुकाबला किया जाए और प्रतिपक्ष में हो जाए. मुद्राराक्षस ने कहा कि हिन्दी के मुकाबले उर्दू साहित्यकारों का जन सरोकार खूब रहा है, जबकि हिन्दी लेखकों का सरोकार सही मायने में जन सरोकार नहीं कहा जा सकता. यही कारण है कि हिन्दी स्तरीय लेखन की प्रक्रिया से दूर होती चली जा रही है. आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि आधुनिक साहित्य की शुरुआत से ही साहित्य को अपने समय के साथ मुठभेड़ करनी होगी. प्रेमचंद ने पचहत्तर साल पहले समय के साथ मुठभेड़ करने की शुरुआत करने की घोषणा की थी. गुलाम भारत के आजादी के आंदोलन में जनता किस प्रकार उपस्थित थी, उसका लेखा- गोदान है. प्रेमचंद ने जहां से शुरू किया फिर वहीं से शुरुआत करनी होगी. उन्होंने आशा जतायी कि मुख्य धारा के लेखक अपने सरोकारों की तरफ फिर से वापस होंगे. वसुधा के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा ने मार्क्सवाद को अप्रासंगिक ठहराए जाने को हास्यास्पद बताया. युवा आलोचक पल्लव ने कहा कि अपने समय के असली सवालों को पहचानने और चिन्हित करने की जरूरत है. उन्होंने लेखक संगठनों की पुन:प्रासंगिकता के संबंध मे भी विचार रखे. वरिष्ठ रंगकर्मी राकेश ने नयेपन की वकालत करने वालों को आड़े हाथों लिया.उन्होंने कहा कि आखिर नया किस प्रकार किया जाए, क्या सीधे चलने की बजाय उल्टा चलना ही नयापन है. युवा कथाकार राकेश बिहारी ने कहा कि बाजार सपने बेचता है.प्रो. रमेश दीक्षित ने लोगों को खुल कर अपने सरोकारों को स्वीकार करने का आह्वान किया. प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि अब जीवन आगे-आगे चलता है और साहित्य पीछे-पीछे. पुनर्नवा के सम्पादक राजेन्द्र राव ने बताया कि हिन्दी साहित्य में जातीय विभाजन की रेखा खींच दी गयी है. अन्य साहित्यकारों में कथाकार कविता, सारा राय, डा. रंजना जायसवाल, अमरीक सिंह दीप, हरीचरन प्रकाश , मूलचंद गौतम व प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी आदि की भी सक्रिय भागीदारी रही.
गोष्ठी में जब तब विवाद-संवाद की स्थितियां बनीं. पहले दिन गिरिराज किशोर ने प्रलेस पर आरोप लगाया कि अपने समारोह में प्रकाशित स्मारिका में यशपाल जैसे लेखक का चित्र न छापकर बड़ी गलती की है. वहीं अंतिम क्षणों में स्थानीय पत्रकार के. विक्रम राव के अध्यक्षीय उद्बोधन के बाद भी बोलने पर आपत्ति की जाने से थोड़ी अप्रिय स्थिति हो गई,जिसे बाद में ठीक कर लिया गया. दो दिन चले इस आयोजन में बड़ी संख्या में लेखकों-पाठकों का जुटना सचमुच साहित्य के प्रति आकर्षण का ही प्रमाण है.
प्रस्तुति- विशेष संवाददाता
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