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दक्षिण भारत में हो रहा हिंदी में ज्यादा काम : चतुर्वेदी

भोपाल, सितंबर 12 : राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी ने यहां शुक्रवार को कहा कि भारत सरकार के संस्थान दक्षिण भारत में हिंदी में ज्यादा काम कर रहे हैं, जबकि उत्तर भारत में इसके प्रति गंभीरता नहीं है।
मध्य प्रदेश की राजधानी में चल रहे 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन के दूसरे दिन ‘विदेश नीति में हिंदी’ विषय पर चतुर्वेदी ने कहा कि व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाएं सीखने का प्रयास करना चाहिए। इससे उसका बौद्धिक और मानसिक क्षितिज विकसित होता है। फिर भी अपनी हिंदी भाषा के प्रति हमारा विशेष आग्रह होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच बेहतर जीवंत संवाद हमारे देश की भाषा में ही संभव है। भारत में हिंदी लिखने, पढ़ने और समझने वाले लोगों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है, जबकि अंग्रेजी सिर्फ दो प्रतिशत लोग जानते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि 1963 में राजभाषा कानून लागू होने के 52 वर्ष बाद भी हम हिंदी में कामकाज करना नहीं सीख पाए हैं।
चतुर्वेदी ने यह तथ्य उजागर किया कि भारत सरकार के संस्थान दक्षिण भारत में हिंदी में ज्यादा काम कर रहे हैं, जबकि उत्तर भारत में इसके प्रति वांछित गंभीरता नहीं है। विदेश मंत्रालय की बुनियाद ही अंग्रेजी पर रखी गई। यह स्थिति कमोवेश आज भी चल रही है। विदेश मंत्रालय में अब हिंदी का प्रयोग थोड़ा बहुत होने लगा है लेकिन अंग्रेजी मानसिकता आज भी हावी है।
भारत की विदेश नीति में हमारे जनमानस की भावना को पर्याप्त स्थान देना होगा। उन्होंने कहा कि पासपोर्ट मैनुअल आज भी अंग्रेजी में है। पासपोर्ट में प्रविष्टियां सिर्फ अंग्रेजी में होती हैं। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने में एक बड़ी बाधा वित्तीय खर्च की थी, जिसे वहन करने में भारत अब समर्थ है। दूसरी बाधा सदस्य देशों में से दो-तिहाई का समर्थन प्राप्त करने की थी, जिसे दूर करने के लिए विदेशों में स्थित दूतावासों द्वारा प्रयास किया जाना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ में अवर महासचिव अतुल खरे ने कहा कि यह गलत धारणा है कि हिंदी एक अविकसित भाषा है, जिसमें राजनय सहित अनेक विषयों की अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं है। इस धारणा को दूर करना होगा।
उन्होंने कहा, “हिंदी बोलने और लिखने में सामाजिक संकोच भी एक बड़ी बाधा है। लोगों को लगता है कि वे हिंदी बोलने में वे गलती करेंगे। हमें बोलना शुरू करना चाहिए, धीरे-धीरे गलतियां भी सुधरने लगेंगी।”
खरे ने कहा कि हिंदी की पुस्तकें अधिक से अधिक देशों में दूतावासों के माध्यम से पहुंचाई जानी चाहिए।
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