भारत का प्राचीन ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगर उज्जैन अपने में अनेक विशिष्टताएं समेटे हुए है। परम पावन उज्जयिनी, तीर्थमयी नगरी के रूप में मान्यता प्राप्त है। भारत के प्रमुख द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जैन महाकाल भी हैं। महाकालेश्वर स्वयंभू दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग हैं। प्रधान शिवतीर्थ होने से यहां अनेक देवता शिवलिंग स्वरूप में स्थित हैं। तीर्थ की चारों दिशाओं में क्षेत्र की रक्षा के लिए चार द्वारपाल शिवरूप में स्थित हैं जिनका उल्लेख स्कंधपुराण अंतर्गत अवन्तिखण्ड में है। पंचेशनि यात्रा जिसे अपभ्रंश में पंचक्रोशी यात्रा कहते हैं इन्हीं चार द्वारपालों की कथा है। पूजा विधान में ईष्ट परिक्रमा का विशेष महत्व है। पंचक्रोशी के मूल में इसी विधान की भावना है। पंचक्रोशी यात्रा वर्तमान में शिव यात्रा है। इस यात्रा में शिव के पूजन, अभिषेक, उपवास, दान, दर्शन की ही प्रधानता धार्मिक ग्रंथों में मिलती है। मोक्ष नगरी उज्जैन के चारों तरफ रंग-बिरंगे साफे, पगडि़यों और सतरंगी लुगड़े, चुनरियों की नई छटा में चिलचिलाती धूप के बावजूद श्रद्धा का अद्वितीय दृश्य उत्पन्न हो जाता है। भक्तिगान की स्वर लहरियां आच्छादित हो जाती है, ‘हरे-हरे शिव महादेवा, पार्वती वल्लभ सदाशिव, हरि लगावे बेड़ा पार, हरि से कर लो मित्राचार’। यह दृश्य निर्मित होता है पंचक्रोशी यात्रा की धर्म और तीर्थ की पैदल यात्रा का, जो इस वर्ष 1 मई से 6 मई तक पांच दिनों के लिए शिव साधना हेतु आरंभ हो रही है, सिंहस्थ महापर्व होने के कारण करीब 5 लाख से अधिक श्रद्धालु भाग लेंगे। संभवतः यह अधिक लागों को पता नहीं होगा कि उज्जैन का महत्व सिंहस्थ और कार्तिक मेले के अलावा पंचक्रोशी की इस यात्रा के कारण भी है। उज्जैन शक्ति और उपासना के मेले का ही नहीं, साधना और भक्ति यात्रा का भी है। आस्था, विश्वास, उदारता और सहनशीलता भारतीय संस्कृति की विशेषताएं है। अवंती नगरी के लिए वेद तो यहां तक कहते है कि इस नगर की धरती के स्पर्श मात्र से ही मोक्ष मिल जाता है। यूँ तो पंचक्रोशी की यात्रा हर साल वैशाख कृष्ण दशमी से शुरू होकर वैशाख अमावस्या को संपन्न होती है। स्कंध पुराण के अनुसार अवन्तिका के लिए वैशाख मास, प्रयाग के लिए माघ और पुष्कर तीर्थ के लिए कार्तिक मास अत्यंत पुनीत है। इसी वैशाख मास के मेषस्थ सूर्य में, वैशाख कृष्ण दशमी से अमावस्या तक इस पुनीत पंचक्रोशी का विधान हैं। लेकिन जब बारह वर्ष में सिंहस्थ आता है तो दिखाई देता है कर्म का मर्म और पर्व का गर्व। जिस प्रकार मेले जाति व सभ्यता की पहचान प्रकट करते है उसी प्रकार यात्रा भक्ति व साधना की एक रूपक है। पंचक्रोशी यात्रा का विश्वास भोले ग्रामीणों के साथ जुड़ा है और यह 99 फीसदी ऐसे धर्मालुओं की आस्था की यात्रा है जो किसान हैं। पंचक्रोशी के यात्री प्रथम दिन शिप्रा स्नान करके ज्योतिर्लिंग भगवान महाकालेश्वर व पटनी बाजार स्थित भगवान नागचंद्रेश्वर के दर्शन कर गोपाल मंदिर, बड़ा सराफा, अरंविन्द नगर, वेश्य टेकरी और उन्डासा तलाई होते हुए पूर्व दिशा में 12 किलोमीटर यात्रा कर पिंगलेश्वर तीर्थवास पहुंचते हैं। यह होता है पांच दिनों की तीर्थयात्रा का पहला पड़ाव। दक्षिण में करोहन मंे दूसरा पड़ाव 23 कि.मी. यात्रा कर पहुंचते है, कायावरूणेश्वर महादेव तीर्थस्थान का मंदिर है। तीसरे दिन का पड़ाव है ग्राम नलवा 27 कि.मी. यात्रा कर बिल्वेश्वर महादेव का मंदिर हैं, चैथे दिन का पड़ाव 28 कि.मी. जैथल है। कालियादेह महल के परिसर में विश्राम का अंतिम मुकाम है। डाबला होते हुए यात्री 16 कि.मी. पैदल यात्रा कर पिंगलेश्वर तीर्थवास आते है और वापस शिप्रा के शीतल जल से स्नान कर ठंडी रेत में दो पल आराम करते है। कच्चे, अंधेरे, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर यह यात्रा होती है। सिर पर खाने की पोटली रखे माथे पर चंदन लगाए और हरे-हरे महादेवा का गान करते हुए यात्री निकल पड़ते हैं। यात्रियों को पहले अपनी यात्रा पूरी करने की लगी रहती है उन्हें सुस्ताने

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